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छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

कृषि - योजना का विरोध यानी कमेटी का विरोध !... रामाधीन श्रीवास्तव भी मन में यही सोच रहे थे। शायद जयप्रकाश पिछले साल की चेतावनी भूल गया है... या उसकी कहीं और नौकरी पक्की हो गई है।
जयप्रकाश ने बात ख़त्म करके समर्थन के लिए अपने साथियों पर दृष्टि डाली। राजेश्वर और पाठक अपनी-अपनी कुर्सियों से आगे झुक आए थे। मगर उसने गुप्ताजी की ओर देखा तो वह उससे आँखें चुराने की कोशिश करने लगे। श्रीवास्तवजी ने पीठ कुर्सी से टिका ली और भावशून्य आँखों से छत की ओर देखने लगे। रस्तोगी ने इधर-उधर ताकते हुए ज़ाहिर किया जैसे उसने जयप्रकाश की बात ही न सुनी हो ।
जयप्रकाश का चेहरा आवेश के कारण लाल हो गया था और रह-रहकर उसकी उँगलियाँ फड़क उठती थीं। मगर साथियों की ऐसी प्रतिक्रिया देखकर उसका उबाल भी ठंडा हो गया। और एक बार फिर चन्द मिनटों के लिए ख़ामोशी छा गई।
दूध के उफ़ान की तरह बार-बार बातों का सिलसिला बनता और टूट जाता। अध्यापकों के चेहरों पर अचानक किसी रोशनी का दीया टिमटिमाता और प्रकाश देने से पहले ही बुझ जाता । घुटी घुटी - सी आवाज़ें, कुछ बोलने को आतुर अकुलाते हुए-से मौन अक्षर और अपठनीय लिपि से अंकित अध्यापकों के बेजुबान चेहरे, इन सब बातों पर राजेश्वर ने जितना ध्यान दिया उतना ही वह उलझता गया ।
पाठक को भी जयप्रकाश की इतनी दिलचस्प बात पर अध्यापकों का मौन रहना अख़र गया। ऐसे शान्त प्रकृति के पोंगे अध्यापक उसने कहीं नहीं देखे थे । अतः स्वर में भरसक कोमलता लाते हुए जयप्रकाश से पूछ ही बैठा, “क्यों मास्टर साहब, यह कृषि योजना क्या बला है ?” और मन-ही-मन यही प्रश्न राजेश्वर ने भी दोहरा दिया।
जयप्रकाश को इस प्रश्न से बड़ी राहत मिली। यद्यपि कुछ ही मिनट पहले वे सकपकाकर चुप हो गया था, किन्तु भीतर-ही-भीतर निस्तब्धता उसे चुभ रही थी। गो कि प्रश्न अच्छा नहीं था, फिर भी उसने उसका उपयोग परिस्थिति को सँभालने में किया । हँसकर बोला, “धीरे-धीरे सब कुछ मालूम हो जाएगा, मास्टर साहब ! आज तो आपने ज्वाइन ही किया है।" और फिर वह ऐसी लापरवाह हँसी हँस दिया, जैसे एक मामूली-सी बात को खामखाह बहुत महत्त्व दे दिया गया हो। और अब यह खामोशी घट जानी चाहिए ।
शायद जयप्रकाश के करुणार्द्र मुख या शायद वातावरण पर दया करते हुए रामप्रकाश गुप्ता और रामाधीन श्रीवास्तव थोड़ा-सा मुस्करा दिए। रस्तोगी ने भी आँखें मिचमिचाईं । राजेश्वर को आशा बँधी कि अब वातावरण हल्का हो रहा है । पाठक को भी तनाव टूटता हुआ दिखाई दिया । किन्तु जयप्रकाश के स्वर की कड़वाहट को लोग अभी तक पूरी तरह पचा नहीं पाए थे। सबके मन में भय था कि उन्होंने मैनेजमेंट की कृषि - योजना- विरोधी चर्चा में भाग लिया है और सब तुरन्त कुछ ऐसा कर देना चाहते थे कि यह सिद्ध न हो सके ।
फलस्वरूप दो-चार मिनट तक उखड़ी - उखड़ी बातें करने के बाद, अपने बेक़सूर होने का सबूत देते हुए, सबसे पहले गुप्ताजी और फिर रस्तोगी वहाँ से खिसक लिए। फिर नागरिकशास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव, पाठकों को लाइब्रेरी दिखाने के बहाने उठा ले गए। और टीचर्स - रूम में रह गए केवल दो आदमी। एक जयप्रकाश जो यह सोच रहा था कि क्या नए अध्यापकों की उपस्थिति में मुझे यह बात नहीं कहनी चाहिए थी और दूसरा राजेश्वर ठाकुर जिसके मन में कृषि-योजना को लेकर तीव्र उत्सुकता जग गई थी।
उसी समय बराबर के कमरे से पवन बाबू किसी लड़के को फ़ार्म भरने की विधि बतलाते हुए ज़ोर से चीख़ पड़े, “किस उल्लू के पट्ठे ने तुम्हें मिडिल का सर्टीफिकेट दे दिया। तुम एक शब्द तो ठीक लिख नहीं सकते ।”
जयप्रकाश का ध्यान उधर चला गया। सोचने लगा, अब ऐनक उतारकर पवन उस लड़के को उल्लू जैसी आँखों से घूर रहा होगा। और यह सोचकर उसे हँसी आने लगी। मगर राजेश्वर का ध्यान वहीं था। जयप्रकाश के होंठों पर मुस्कान आते देखकर वह फिर पूछ बैठा, “बताइए न मास्टर साहब, क्या है यह कृषि योजना ?”
“कृषि-योजना ?” अनायास तन्द्रा से चौंकते हुए जयप्रकाश ने उसी की बात दोहरा दी। फिर एक आत्मीय - सी मुस्कुराहट अधरों पर लाते हुए बोला, “आप कहाँ के रहनेवाले हैं ?"
“मावले का।" राजेश्वर ने उत्तर दिया। सोचा, शायद इस प्रश्न का उत्तर से कोई सम्बन्ध हो ।
किन्तु जयप्रकाश ने यह प्रश्न केवल यह निश्चय करने के लिए किया था कि वह राजेश्वर को इस बारे में कितना बताए या न बताए । मावले का नाम सुनकर वह चौंक पड़ा, “तो आप गाँव के रहनेवाले हैं ?”

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